झारखंड, जो कभी अपने घने जंगलों, कोयले की खदानों और खनिजों के लिए जाना जाता था, अब विस्थापन और सामाजिक असमानता का गढ़ बन चुका है। विकास की दौड़ में यहां के मूल निवासियों को उनकी ही जमीन से बेदखल किया जा रहा है।
बोकारो में प्रेम की मौत ने जगाई चेतना
बोकारो में हुई प्रेम कुमार महतो की मौत ने एक बार फिर राज्य में विस्थापन और बाहरी-भीतरी संघर्ष को केंद्र में ला दिया है। यह मौत केवल एक हादसा नहीं, बल्कि वर्षों से सुलगते आक्रोश का प्रतीक बन चुकी है।
झारखंड विस्थापन: विकास के नाम पर उजड़ते सपने
राज्य में विस्थापन की समस्या कोई नई नहीं है। सरकार और कंपनियों द्वारा उद्योगों के नाम पर आदिवासी और स्थानीय लोगों को जबरन उनकी जमीन से बेदखल किया गया। जमशेदपुर, बोकारो और धनबाद जैसे औद्योगिक शहरों में जिनके घर उजड़े, वे आज भी न्याय की आस में भटक रहे हैं।
बोकारो स्टील प्लांट के नाम पर किए गए वादे आज भी अधूरे हैं। जिन 4500 परिवारों से रोजगार का वादा किया गया था, उनमें से मुश्किल से 1600 को ही कोई अवसर मिला, वह भी अस्थायी रूप में। यह सरकारी उदासीनता का एक जीवंत उदाहरण है।
जयराम महतो पर हमला: आवाज को दबाने की कोशिश
जब झारखंड के जननेता जयराम महतो बोकारो में विस्थापितों की आवाज बनने पहुंचे, तो उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ा। कांग्रेस विधायक श्वेता सिंह के समर्थकों ने उनकी गाड़ी पर हमला कर दिया। यह साफ दर्शाता है कि जो भी पीड़ितों की बात करता है, उसे चुप कराने की कोशिश की जाती है।
बाहरी-भीतरी संघर्ष: रोज़गार और सत्ता पर कब्जा
झारखंड में स्थानीय लोगों को धीरे-धीरे उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। रोज़गार से लेकर राजनीति तक, बाहरी लोगों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। स्थानीय युवाओं को नौकरियों से वंचित रखा जाता है और उद्योगों में ठेकेदारी भी बाहरी हाथों में जाती है।
इस असमानता ने राज्य में असंतोष को जन्म दिया है, और जब कोई नेता स्थानीयों की आवाज उठाता है, तो सत्ता पक्ष उसे दबाने का हरसंभव प्रयास करता है।

राज्य सरकार की नाकामी और जनता की पीड़ा
झारखंड में बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता ने लोगों की उम्मीदें तोड़ दी हैं। मौजूदा सरकार पर यह आरोप भी लगते रहे हैं कि वह न तो विस्थापितों की सुध ले रही है और न ही न्याय देने में सक्षम है।
झारखंड को चाहिए न्याय, नेतृत्व और संवेदना
झारखंड में विस्थापन सिर्फ भौगोलिक नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक विस्थापन भी है। प्रेम कुमार की मौत ने यह जता दिया है कि यह जख्म अब और गहरा होता जा रहा है। सरकार को चाहिए कि वह विस्थापितों के पुनर्वास, रोजगार और सुरक्षा पर ठोस कदम उठाए।
जब तक झारखंड में भीतरी और बाहरी की खाई नहीं भरेगी, तब तक यह राज्य न तो सुरक्षित होगा और न ही समृद्ध। जनता को नेतृत्व चाहिए, जो उनके दर्द को समझे और उनके साथ खड़ा हो।