शहीद रघुनाथ महतो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन प्रारंभिक नायकों में से एक हैं, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की पहली चिंगारी जलाई। वे झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र में चुआड़ विद्रोह (1769-1778) के प्रमुख नेता थे, जिसे भारत के प्रथम संगठित स्वतंत्रता आंदोलनों में से एक माना जाता है। उनका जीवन साहस, संघर्ष, और आत्मसम्मान की एक ऐसी मिसाल है, जो न केवल कुड़मी समुदाय, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणादायक है।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
रघुनाथ महतो का जन्म 21 मार्च 1738 को तत्कालीन जंगल महल क्षेत्र के मानभूम जिले (वर्तमान में झारखंड के सरायकेला-खरसावाँ जिले) के नीमडीह प्रखंड के घुटियाडीह गाँव में हुआ था। यह क्षेत्र उस समय घने जंगलों, पहाड़ियों और नदियों से घिरा हुआ था। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य और संसाधनों की प्रचुरता इसे एक समृद्ध क्षेत्र बनाती थी, लेकिन साथ ही यह अंग्रेजी शोषण का भी शिकार बन रहा था। रघुनाथ का जन्म कुड़मी (कुर्मी) समुदाय में हुआ, जो एक मेहनती और स्वाभिमानी किसान समुदाय था। कुड़मी लोग अपनी जमीन, जल, और जंगल को अपनी पहचान मानते थे और इनकी रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे।
उनके पिता का नाम ठाकुर महतो और माता का नाम फूलमती देवी था (हालांकि कुछ स्रोतों में उनके माता-पिता के नामों का उल्लेख नहीं मिलता)। रघुनाथ अपने माता-पिता के इकलौते संतान थे और बचपन से ही परिवार की जिम्मेदारियों को समझते थे। उनके पिता एक कुशल किसान थे, जो गाँव में सम्मानित व्यक्ति माने जाते थे। रघुनाथ को अपने पिता से खेती के गुर और प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने की कला विरासत में मिली। उनकी माँ उन्हें लोककथाएँ और वीरगाथाएँ सुनाया करती थीं, जिनमें स्थानीय नायकों की कहानियाँ शामिल थीं। इन कहानियों ने रघुनाथ के मन में स्वतंत्रता और आत्मसम्मान की भावना को जन्म दिया।
रघुनाथ का बचपन सादगी भरा था। वे अपने गाँव के अन्य बच्चों के साथ खेतों में खेलते, नदियों में मछली पकड़ते, और जंगलों में शिकार के लिए जाते थे। उनकी शारीरिक बनावट मजबूत थी और वे कम उम्र में ही तीरंदाजी, भाला फेंकने, और पारंपरिक हथियारों के इस्तेमाल में निपुण हो गए थे। गाँव के बुजुर्गों का कहना था कि रघुनाथ में नेतृत्व की स्वाभाविक क्षमता थी। वे बच्चों के झुंड को एकजुट कर खेलों में उनकी अगुवाई करते थे, जो बाद में उनके विद्रोही नेतृत्व का आधार बना।
अंग्रेजी शोषण का दौर और सामाजिक परिस्थितियाँ
18वीं सदी के मध्य तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपनी सत्ता मजबूत करनी शुरू कर दी थी। 1757 में प्लासी के युद्ध और 1764 में बक्सर के युद्ध के बाद कंपनी को बंगाल, बिहार, और उड़ीसा में कर वसूलने का अधिकार मिल गया था। इस अधिकार के साथ ही अंग्रेजों ने स्थानीय लोगों पर शोषण का जाल बिछाया। छोटानागपुर क्षेत्र, जो जंगल महल के नाम से जाना जाता था, भी इस शोषण से अछूता नहीं रहा। अंग्रेजों ने यहाँ के जमींदारों को अपने अधीन कर लिया और उनसे भारी कर वसूलना शुरू कर दिया। जो जमींदार कर नहीं दे पाते थे, उनकी जमीनें छीन ली जाती थीं और उन्हें अंग्रेजी समर्थक जमींदारों को सौंप दी जाती थीं।
कुड़मी समुदाय के लिए यह दौर बेहद कठिन था। उनकी जमीनें उनकी आजीविका और पहचान का आधार थीं, लेकिन अंग्रेजी नीतियों ने उन्हें अपनी जमीनों से बेदखल करना शुरू कर दिया। कर की दरें इतनी अधिक थीं कि किसान अपनी उपज का बड़ा हिस्सा जमींदारों और अंग्रेजों को दे देते थे, और उनके पास अपने परिवार के लिए कुछ नहीं बचता था। जो लोग कर नहीं दे पाते थे, उन्हें कर्ज में डुबो दिया जाता था, और अंततः उनकी जमीनें नीलाम कर दी जाती थीं। इसके अलावा, अंग्रेजों ने जंगलों पर भी कब्जा करना शुरू कर दिया, जिससे स्थानीय लोगों का शिकार और लकड़ी संग्रह का अधिकार छिन गया।
रघुनाथ ने अपने गाँव और आसपास के इलाकों में इस शोषण को अपनी आँखों से देखा। उनके गाँव के कई परिवारों ने अपनी जमीनें खो दीं और जमींदारों के गुलाम बन गए। अंग्रेजी सैनिक और उनके समर्थक जमींदार गाँवों में लूटपाट करते थे, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते थे, और विरोध करने वालों को कठोर सजा देते थे। इस अन्याय ने रघुनाथ के मन में आक्रोश भर दिया। वे समझ गए कि अगर इस शोषण के खिलाफ आवाज नहीं उठाई गई, तो उनका समुदाय और उनकी संस्कृति पूरी तरह खत्म हो जाएगी।
चुआड़ विद्रोह की शुरुआत
1769 में रघुनाथ महतो ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूँका, जिसे इतिहास में “चुआड़ विद्रोह” के नाम से जाना जाता है। “चुआड़” शब्द का प्रयोग अंग्रेजों और उनके समर्थक जमींदारों ने विद्रोहियों को अपमानित करने के लिए किया था, जिसका अर्थ “लुटेरा” या “उत्पाती” था। लेकिन यह विद्रोह वास्तव में जल, जंगल, और जमीन की रक्षा के लिए एक जनआंदोलन था। रघुनाथ ने इस विद्रोह की शुरुआत अपने गाँव नीमडीह से की। उन्होंने गाँव के मैदान में एक विशाल जनसभा बुलाई, जिसमें कुड़मी, भूमिज, बाउरी, संथाल, और अन्य समुदायों के लोग शामिल हुए।
इस सभा में रघुनाथ ने लोगों को एकजुट होने का आह्वान किया। उन्होंने कहा, “हमारी जमीन हमारी माँ है, और इसे छीनने वाले हमारे दुश्मन हैं। अगर हम आज चुप रहे, तो कल हमारे पास कुछ नहीं बचेगा।” उनका नारा था- “अपना गाँव, अपना राज; दूर भगाओ विदेशी राज।” यह नारा लोगों के दिलों में स्वतंत्रता की भावना जगा गया। सभा में यह निर्णय लिया गया कि वे अंग्रेजी चौकियों और जमींदारों के ठिकानों पर हमला करेंगे और अपनी जमीनों को वापस लेंगे।
रघुनाथ ने एक सेना का गठन किया, जिसमें करीब 5000 से अधिक लोग शामिल थे। यह सेना तीर-धनुष, तलवार, भाला, टांगी, और फरसा जैसे पारंपरिक हथियारों से लैस थी। उनकी सेना में महिलाएँ भी शामिल थीं, जो भोजन तैयार करने, घायलों की देखभाल करने, और संदेश पहुँचाने जैसे कार्यों में योगदान देती थीं। रघुनाथ ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई, जिसमें वे जंगलों और पहाड़ियों का इस्तेमाल करते हुए अचानक हमले करते थे और फिर गायब हो जाते थे।

विद्रोह का नेतृत्व और प्रमुख घटनाएँ
रघुनाथ महतो एक कुशल सेनानायक थे। उनकी सेना में कई विश्वासपात्र सेनापति थे, जैसे डोमन भूमिज, शंकर मांझी, झगड़ू मांझी, पुकलु मांझी, हलकू मांझी, और बुली महतो। इन सेनापतियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में विद्रोह को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रघुनाथ की रणनीति थी कि वे अंग्रेजी चौकियों और जमींदारों के ठिकानों पर हमला करें, हथियार लूटें, और फिर जंगलों में छिप जाएँ। उनकी सेना रात के समय हमले करती थी, जिससे अंग्रेजी सेना को उनकी लोकेशन का पता लगाना मुश्किल हो जाता था।
झरिया पर हमला (फरवरी 1778)
फरवरी 1778 में रघुनाथ ने दामोदर नदी को पार कर झरिया के राजा के क्षेत्र में हमला किया। झरिया का राजा अंग्रेजों का समर्थक था और उसने अपनी सेना को अंग्रेजी चौकियों की रक्षा के लिए तैनात किया था। रघुनाथ की योजना थी कि वे राजा के बैरक से हथियार लूटें और उसकी सेना को कमजोर करें। इस हमले में उनकी सेना ने अंग्रेजी समर्थक जमींदारों को सबक सिखाया और कई हथियार अपने कब्जे में ले लिए। इस जीत के बाद दामोदर नदी के किनारे एक सभा हुई, जिसमें रघुनाथ ने अपनी सेना को अगली रणनीति के लिए तैयार रहने को कहा। उन्होंने घोषणा की, “जब तक अंग्रेज हमारी जमीन जमींदारों के हाथों सौंपते रहेंगे और कर बढ़ाते रहेंगे, तब तक हमारा आंदोलन जारी रहेगा।”
मानभूम और बराकर के हमले
रघुनाथ की सेना ने मानभूम और बराकर क्षेत्रों में भी कई हमले किए। इन हमलों में उन्होंने अंग्रेजी चौकियों को नष्ट किया और जमींदारों के गोदामों से अनाज लूटकर गरीबों में बाँट दिया। उनकी सेना के पास हमेशा 150-200 हथियारबंद लोग रहते थे, जो उनकी निजी सुरक्षा और त्वरित हमले के लिए तैयार रहते थे। 1769 से 1778 तक के इस विद्रोह में उनकी सेना ने ईस्ट इंडिया कंपनी के दर्जनों अधिकारियों और सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। यह विद्रोह इतना प्रभावशाली था कि अंग्रेजी सेना को इस क्षेत्र में अपनी रणनीति बदलनी पड़ी।
शहादत और अंतिम संघर्ष
रघुनाथ महतो को पकड़ना अंग्रेजों के लिए आसान नहीं था। उनकी गुरिल्ला रणनीति और स्थानीय लोगों का समर्थन उन्हें अजेय बनाता था। लेकिन 1778 में अंग्रेजी सेनापति विलकिंग्सन ने उनके खिलाफ एक ठोस योजना बनाई। एक गद्दार ने अंग्रेजों को सूचना दी कि रघुनाथ और उनके साथी एक पहाड़ी पर छिपे हुए हैं। इस सूचना के आधार पर अंग्रेजी सेना ने उस पहाड़ी को घेर लिया। 5 अप्रैल 1778 को अंग्रेजों ने विद्रोहियों पर जमकर गोलीबारी की। इस हमले में रघुनाथ महतो और उनके कई साथी शहीद हो गए।
रघुनाथ की शहादत के बाद उनकी सेना बिखर गई, लेकिन चुआड़ विद्रोह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। यह आंदोलन 1805 तक चला और इसने अंग्रेजों को यह एहसास करा दिया कि भारत के लोग अपनी आजादी के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनकी शहादत ने स्वतंत्रता की चिंगारी को पूरे देश में फैलाने का काम किया।
विरासत और प्रभाव
रघुनाथ महतो की शहादत के बाद उनकी गाथा लोककथाओं, गीतों, और कहानियों में जीवित रही। झारखंड के कुड़मी समुदाय में उन्हें एक महानायक के रूप में याद किया जाता है। उनके गीत, जैसे “रघुनाथ महतो चुआड़ राजा, अंग्रेजन से लड़े बाजा,” आज भी गाँवों में गाए जाते हैं। उनकी जयंती (21 मार्च) और शहादत दिवस (5 अप्रैल) पर झारखंड के विभिन्न हिस्सों में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
रघुनाथ का प्रभाव केवल उनके समुदाय तक सीमित नहीं था। उन्होंने यह दिखाया कि संगठित प्रतिरोध के जरिए विदेशी शासन को चुनौती दी जा सकती है। उनकी गुरिल्ला युद्ध नीति बाद के स्वतंत्रता संग्रामों में भी देखी गई, खासकर 1857 के विद्रोह में। वे भारत के पहले स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हथियार उठाए।
आधुनिक संदर्भ में रघुनाथ महतो
आज के समय में रघुनाथ महतो को याद करने और उनकी जीवनी को जन-जन तक पहुँचाने की कोशिशें जारी हैं। झारखंड के कई संगठन और नेता, जैसे आजसू पार्टी के सुदेश कुमार महतो, उनके योगदान को स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल करने की मांग करते हैं। उनकी प्रतिमाएँ स्थापित की जा रही हैं, और उनके नाम पर चौकों और सड़कों का नामकरण किया जा रहा है। 2020 में झारखंड सरकार ने उनके सम्मान में एक स्मारक बनाने की घोषणा की थी, जो उनके बलिदान को अमर करने की दिशा में एक कदम है।
रघुनाथ महतो का जीवन हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करना हर इंसान का अधिकार है। उनका बलिदान हमें प्रेरित करता है कि हम अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाएँ और अन्याय के खिलाफ लड़ें। उनकी कहानी आने वाली पीढ़ियों को यह बताती है कि साहस और एकता के बल पर बड़ी से बड़ी ताकत को चुनौती दी जा सकती है।
शहीद रघुनाथ महतो की जीवनी एक ऐसी गाथा है, जो इतिहास के पन्नों में भले ही पूरी तरह दर्ज न हो, लेकिन लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है। उनका जीवन, उनका संघर्ष, और उनकी शहादत हमें यह याद दिलाती है कि स्वतंत्रता की कीमत कितनी बड़ी होती है। वे एक साधारण किसान से उठकर एक महान विद्रोही नेता बने और अपने समुदाय के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। उनकी शहादत हमें यह संदेश देती है कि “अपना गाँव, अपना राज” की भावना को कभी मरने नहीं देना चाहिए। रघुनाथ महतो न केवल झारखंड के, बल्कि पूरे भारत के गौरव हैं।