आदिवासी युवाओं को गांव की माटी से जोड़ता बेड़ो का पड़हा जतरा महोत्‍सव

आदिवासी युवाओं को गांव की माटी से जोड़ता बेड़ो का पड़हा जतरा महोत्‍सव

बेड़ो का पड़हा जतरा महोत्‍सव न सिर्फ एक सांस्कृतिक उत्सव है, बल्कि यह आदिवासी युवाओं के आत्मसम्मान, परंपरा और सामाजिक एकता का प्रतीक बन चुका है। हर साल 3 जून को बेड़ो (रांची, झारखंड) में आयोजित यह कार्निवाल ग्रामीण जीवन की जड़ों से जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। पड़हा जतरा कार्निवाल आज के डिजिटल युग में भी अपनी प्राचीन पहचान को समेटे हुए आदिवासी युवाओं को उनकी मूल पहचान और परंपराओं से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

अक्षत भगत की कहानी : परंपरा से प्रेम और पहचान की प्रेरणा

अक्षत भगत, एक युवा क्रिएटिव डायरेक्टर हैं जो मुंबई में बॉलीवुड की चकाचौंध से भरी दुनिया में काम करते हैं। उन्होंने जियो क्रिएटिव लैब में कई महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री फिल्में और वेब सीरिज बनाईं हैं। लेकिन हर साल वे बेड़ो के पड़हा जतरा महोत्‍सव में शामिल होने के लिए मुंबई से गांव आते हैं। उनके अनुसार, “दुनिया के लिए सोचो, लेकिन काम अपने गांव के लिए करो।” यह सोच आज के आदिवासी युवाओं के लिए एक प्रेरणास्त्रोत बन चुकी है।

अक्षत भगत की कहानी : परंपरा से प्रेम और पहचान की प्रेरणा
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पड़हा जतरा : परंपरा, पहचान और आत्मसम्मान का संगम

बेड़ो पड़हा जतरा महोत्‍सव एक ऐसा आयोजन है जिसमें आदिवासी संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराएं और लोकगीत-नृत्य की अद्भुत झलक मिलती है। इसमें शामिल होने वाले पड़हा राजा अपने परंपरागत प्रतीकों जैसे – घोड़ा, हाथी, छाता, झंडे, बाजा-गाजा के साथ शोभायात्रा निकालते हैं। महिलाएं और पुरुष पारंपरिक पोशाकों में सजकर सांस्कृतिक प्रस्तुतियां देते हैं।

1967 से प्रारंभ हुई परंपरा

इस मेले की शुरुआत 1967 में हुई थी, जब क्षेत्रीय विधायक करमचंद भगत के पहली बार विधायक बनने की खुशी में पड़हा राजाओं ने एक सांस्कृतिक मेले का आयोजन किया। यह आयोजन बाद में एक स्थायी परंपरा बन गया और अब यह पड़हा जतरा कार्निवाल के नाम से मशहूर है।

डॉ रविन्द्र नाथ भगत की नेतृत्व में हुआ विकास

विनोबा भावे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और स्‍व करमचंद भगत के सुपुत्र डॉ रविन्द्र नाथ भगत ने इस परंपरा को नए आयाम दिए। उनके नेतृत्व में यह मेला अब एक वृहद सांस्कृतिक उत्सव में परिवर्तित हो गया है, जिसमें झारखंड और देश के विभिन्न कोनों से आदिवासी युवा भाग लेने आते हैं।

डॉ रविन्द्र नाथ भगत की नेतृत्व में हुआ विकास

बदलते समाज में परंपरा का संरक्षण

आधुनिकता की दौड़ में बहुत से आदिवासी युवा अपने परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं। लेकिन पड़हा जतरा कार्निवाल उन्हें यह याद दिलाता है कि उनकी असली पहचान गांव की माटी, रीति-रिवाज और संस्कृति में ही है। यह आयोजन समाज को एकजुट करने, पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच संवाद स्थापित करने और सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजने का कार्य करता है।

गांव लौटने की खुशी और खेती से जुड़ाव

पडहा जतरा महोत्‍सव का एक अन्य प्रमुख उद्देश्य कृषि कार्यों की शुरुआत से जुड़ा है। इस आयोजन के समय गांव लौटने वाले युवा अपने बुजुर्गों के साथ खेतों में काम करते हैं, जिससे पारिवारिक सहयोग और सामूहिक श्रम की भावना विकसित होती है। यह मेला सांस्कृतिक पुनर्जागरण के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों को भी प्रोत्साहन देता है।

गांव लौटने की खुशी और खेती से जुड़ाव
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पड़हा राजा और स्थानीय नेतृत्व की भूमिका

हर साल इस आयोजन को सफल बनाने में कई पड़हा राजा और स्थानीय संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है:

  • 21 पड़हा चिलदीरी के राजा महादेव उरांव
  • 12 पड़हा कोटा के राजा बीरु पाहन
  • 21 पड़हा केसारो के राजा बबलू पहान
  • 22 पड़हा सिंगपुर के राजा लोदो मुंडा
  • 7 पड़हा नेहालू बरटोली के राजा परना मुड़ा
  • 21 पड़हा के राजा मदन उरांव आदि।

इनकी सामूहिक भागीदारी और नेतृत्व के कारण ही यह आयोजन आज एक भव्य महोत्सव बन चुका है।

डिजिटल युग में पारंपरिक आयोजन का अपग्रेडेड संस्करण

पड़हा जतरा महोत्‍सव आज की युवा पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए अपग्रेड किया गया है। इसमें अब डिजिटल मीडिया प्रचार, लाइव प्रसारण, डॉक्यूमेंट्री फिल्में, और सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं को जोड़ा जा रहा है। अक्षत भगत जैसे पेशेवर इस आयोजन को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में मदद कर रहे हैं।

युवा और महिलाओं की भागीदारी

इस आयोजन में युवा और महिलाएं अब बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। वे लोकनृत्य, पारंपरिक नाट्य मंचन, झांकी और हस्तशिल्प प्रदर्शन के माध्यम से अपने कौशल और सांस्कृतिक समझ का प्रदर्शन करते हैं। इससे उन्हें न सिर्फ स्वाभिमान की अनुभूति होती है बल्कि रोजगार और पहचान के अवसर भी प्राप्त होते हैं।

पड़हा जतरा कार्निवाल : भविष्य की दिशा

इस आयोजन के भविष्य की दिशा स्थायित्व, नवाचार और युवाओं की भागीदारी पर निर्भर करती है। यदि ऐसे आयोजनों को सरकारी सहयोग, डिजिटल प्रचार और शैक्षिक संस्थानों के सहयोग से जोड़ा जाए, तो यह न केवल परंपराओं को जीवित रखेगा बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास का जरिया भी बनेगा।

पड़हा जतरा कार्निवाल : भविष्य की दिशा

बेड़ो का पड़हा जतरा महोत्‍सव- परंपरा से भविष्य की ओर

बेड़ो का पड़हा जतरा महोत्‍सव केवल एक उत्सव नहीं बल्कि आदिवासी पहचान, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक जीवंतता का प्रतीक है। यह आयोजन आज की युवा पीढ़ी को यह बताता है कि आधुनिकता के साथ अपनी जड़ों से जुड़ना कितना आवश्यक है। अक्षत भगत जैसे युवाओं की भागीदारी ने यह सिद्ध कर दिया है कि गांव की माटी से प्रेम ही हमें एक बेहतर भारत की ओर ले जा सकता है

Subhash Shekhar

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