“बीस वर्ष की काली रात” पुस्तक समीक्षा – कार्तिक उरांव की कलम से आदिवासी अस्मिता की पुकार

“बीस वर्ष की काली रात” पुस्तक समीक्षा – कार्तिक उरांव की कलम से आदिवासी अस्मिता की पुकार

भारत के इतिहास में जब भी आदिवासी अस्मिता, धर्मांतरण और राजनीतिक उपेक्षा की चर्चा होती है, तो एक नाम गूंजता है — कार्तिक उरांव
उनकी लिखी पुस्तक “बीस वर्ष की काली रात” (Bees Varsh Ki Kaali Raat) भारतीय आदिवासी समाज के उस अंधेरे दौर की सच्ची गवाही है, जब विकास और आज़ादी के नाम पर उनके अस्तित्व को मिटाने की साजिश रची जा रही थी।

यह पुस्तक केवल साहित्य नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक चेतावनी, राजनीतिक प्रतिरोध और सांस्कृतिक पुर्नजागरण का दस्तावेज़ है।

पुस्तक परिचय

विवरणजानकारी
पुस्तक का नामबीस वर्ष की काली रात
लेखककार्तिक उरांव
विषयआदिवासी समाज, धर्मांतरण, राजनीति, सामाजिक न्याय
भाषाहिंदी
प्रकाशन कालस्वतंत्रता के बाद का दौर (लगभग 1970 के दशक में प्रकाशित)
मुख्य संदेश“आदिवासी अस्मिता की रक्षा के बिना भारत का लोकतंत्र अधूरा है।”

लेखक परिचय – कार्तिक उरांव कौन थे?

कार्तिक उरांव (1924–1981) झारखंड के गुमला जिले के रहने वाले थे। वे न केवल एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद् और इंजीनियर थे, बल्कि भारतीय संसद में आदिवासी समाज की सशक्त आवाज़ भी थे।
उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की, परंतु जीवन समर्पित किया अपने समाज के अधिकारों की लड़ाई को।

उनकी लेखनी में दर्द, विद्रोह और समाधान तीनों का संगम है।
“बीस वर्ष की काली रात” उनके राजनीतिक और सामाजिक अनुभवों की परिणति है, जो भारत के आदिवासियों की दशा-दिशा पर गहन विमर्श प्रस्तुत करती है।

शीर्षक का प्रतीकात्मक अर्थ

पुस्तक का शीर्षक “बीस वर्ष की काली रात” अपने आप में एक प्रतीक है।
यह दर्शाता है कि स्वतंत्र भारत के शुरुआती बीस वर्ष आदिवासियों के लिए उजाले नहीं, बल्कि अंधकार, भ्रम और शोषण का काल साबित हुए।

लेखक बताते हैं कि आज़ादी के बाद भी आदिवासियों को उनकी भूमि, संस्कृति और धर्म से वंचित रखा गया।

“स्वतंत्रता आई, पर आदिवासी समाज अब भी गुलाम है — न भूमि अपनी, न पहचान अपनी।”
कार्तिक उरांव

⚖️ पुस्तक की विषय-वस्तु का सार

यह पुस्तक तीन मुख्य भागों में विभाजित है —

1️⃣ अतीत का गौरव – जब आदिवासी समाज आत्मनिर्भर, सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न और धार्मिक रूप से स्वतंत्र था।
2️⃣ वर्तमान की विडंबना – जब धर्मांतरण, राजनीति और सरकारी नीतियों ने उनकी जड़ों को खोखला किया।
3️⃣ भविष्य की चेतावनी – यदि आत्मचेतना और संगठन नहीं आया, तो आदिवासी समाज विलुप्त हो जाएगा।

प्रमुख विषय और विश्लेषण

1. संविधान और आदिवासी अधिकारों की असमानता

लेखक बताते हैं कि संविधान ने अनुसूचित जनजातियों को विशेष दर्जा दिया, लेकिन प्रशासनिक स्तर पर उसका पालन कागज़ों तक सीमित रहा।
उन्होंने प्रश्न उठाया कि —

“जो धर्मांतरण कर चुके हैं, उन्हें अनुसूचित जनजाति की सुविधा देना संविधान का अपमान है।”

लेखक बाबा कार्तिक उरांव का यह तर्क आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि धर्मांतरण के बाद भी लाभ पाने वाले समूहों ने मूल आदिवासियों का हिस्सा छीन लिया।

2. धर्मांतरण और पहचान का संकट

पुस्तक का सबसे तीखा हिस्सा है — धर्मांतरण का मुद्दा।
कार्तिक उरांव ने लिखा है कि आज़ादी के बाद मिशनरियों को जितनी आज़ादी मिली, उतनी ब्रिटिश शासन में भी नहीं थी।

वे आँकड़ों के माध्यम से बताते हैं कि:

  • आदिवासी कल्याण योजनाओं का 75% लाभ ईसाई मिशनों के हाथों में चला गया।
  • जबकि असली आदिवासियों तक केवल 74 पैसे प्रति व्यक्ति पहुँचते थे।

उनका कहना है —

“भारत की आज़ादी ईसाई मिशनरियों के लिए वरदान, और आदिवासियों के लिए अभिशाप बन गई।”

3. राजनीति में आदिवासी प्रतिनिधित्व की कमी

उरांव ने संसद के अपने अनुभवों के आधार पर कहा कि आदिवासी केवल संविधान की किताब में दर्ज हैं, सत्ता के केंद्रों में नहीं।
उनके अनुसार, संसद में दलित, मुसलमान, ईसाई तो संगठित हैं,
पर आदिवासियों की कोई सामूहिक आवाज़ नहीं।

यह पुस्तक एक सवाल खड़ा करती है —
क्या लोकतंत्र में केवल वोट देना ही भागीदारी है, या आवाज़ उठाना भी?

4. आत्मबल और संस्कृति की रक्षा का आह्वान

पुस्तक का अंतिम भाग “कल के जनजाति” प्रेरणादायक है।
यहां उरांव लिखते हैं कि अगर आदिवासी अपनी संस्कृति, भाषा और परंपराओं की रक्षा स्वयं नहीं करेंगे,
तो कोई सरकार या योजना उन्हें नहीं बचा पाएगी।

“किसी समाज का निर्माण विधेयक से नहीं, उसके आत्मबल से होता है।”

यह वाक्य आज भी आदिवासी चेतना का नारा बन चुका है।

भाषा और लेखन शैली

पुस्तक की भाषा सरल, भावनात्मक और तर्कपूर्ण है।
कार्तिक उरांव ने अकादमिक शैली की बजाय जनभाषा का प्रयोग किया है ताकि यह आम पाठक के हृदय तक पहुँचे।

वे आंकड़े, संसदीय रिपोर्ट और वास्तविक उदाहरणों के साथ अपनी बात रखते हैं,
जिससे पुस्तक एक प्रमाणिक दस्तावेज़ का रूप लेती है।

विवाद और आलोचना

“बीस वर्ष की काली रात” जितनी प्रशंसित हुई, उतनी विवादित भी रही।
कई लोगों ने लेखक पर आरोप लगाया कि उन्होंने ईसाई धर्मावलंबी आदिवासियों को अलग वर्ग में रखकर विभाजन की रेखा खींची।
हालाँकि लेखक का तर्क यह था कि यह धार्मिक नहीं, संवैधानिक अन्याय का मुद्दा है।

बावजूद इसके, यह पुस्तक आदिवासी चिंतन के इतिहास में एक मील का पत्थर मानी जाती है।

आज के संदर्भ में पुस्तक की प्रासंगिकता

2025 में भी झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी वही समस्याएँ झेल रहे हैं —
भूमि अधिग्रहण, धार्मिक विभाजन, रोजगारहीनता और सांस्कृतिक क्षरण।

कार्तिक उरांव की चेतावनी आज भी उतनी ही जीवंत है:

“अगर हमने अपनी पहचान नहीं बचाई, तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।”

पुस्तक यह संदेश देती है कि आदिवासी अस्मिता की रक्षा केवल संविधान से नहीं, चेतना से होगी।

निष्कर्ष

“बीस वर्ष की काली रात” केवल बीते समय का वर्णन नहीं,
बल्कि आने वाले भविष्य के लिए एक चेतावनी है।

यह पुस्तक बताती है कि भारत की असली आत्मा गाँवों, जंगलों और पहाड़ों में बसने वाले लोगों में है —
और जब तक उनकी आवाज़ नहीं सुनी जाएगी,
भारत का लोकतंत्र अधूरा रहेगा।

“बीस वर्ष की काली रात” हमें सिखाती है —
कि आज़ादी केवल सत्ता बदलने से नहीं, समाज के भीतर जागरण से आती है।

Subhash Shekhar

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