सर्वप्रथम देश और दुनिया के सभी लोगों को प्रकृति महापर्व सरहुल/ खद्दी/ बाहा/ बा: पर्व की ढेरों शुभकामनाएं.
सरहुल महापर्व, आदिवासी और प्रकृति के बीच अटूट और अन्योन्याश्रय संबंध को दर्शाता है. हमारे पुरखों ने जाना कि प्रकृति हमें बिना मांगे वो सब कुछ देता है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. प्रकृति अर्थात जल, जंगल, जमीन अर्थात हवा, पानी, अन्न, फल, फूल, जीव- जंतु, खनिज- पदार्थ आदि के बिना हम एक पल भी जीवित नहीं रह सकते हैं.

सर्वशक्तिमान प्रकृति का आभार और धन्यवाद करने का त्योहार है "सरहुल". इसे हम नव वर्ष के रूप में भी मनाते हैं. इस समय प्रकृति का एक-एक अंग खुद को नया कर लेता है. पेड़ अपने पुराने, रूखे - सूखे पत्तों को छोड़कर नए पत्तों को ग्रहण करता है. इनमें नये फूल और फल लगते हैं. समस्त ग्रामवासी पाहन की अगुवाई में सरना में संकल्प लेते हैं कि हम भी पुराने, रूखे - सुखे, नकारात्मक विचारों को त्याग कर सुंदर, नए एवं सकारात्मक विचार को अपने अंदर पनपने देंगे. फूल की खुशबू की तरह हमारे कुशल व्यवहार से दुनिया सुभाषित हो. नए फलों की तरह हमारे कर्म भी फलदाई हो, यह कामना करते हैं.
इस समय मनमोहक दृश्य आंखों से सीधे दिल में उतरता हैं. पूरी धरती नई नवेली दुल्हन की तरह सज जाती है. तभी चैत तृतीय शुक्ल पक्ष को सरना आदिवासी समाज सरहुल पूजा करता है. सरहुल पूजा को “खेखेल बेंजा” (धरती का विवाह) भी कहा जाता है तथा पाहन और पहनाईन को सूर्य और धरती का प्रतीक मानकर विवाह कराया जाता है. दोनों के मिलने से ही दुनिया में एक एक चीज का सृजन संभव होता है.
प्रकृति द्वारा दिए नए फल फूल पत्ते को सरना में धर्मेश सिंगबोंगा के चरणो में चढ़ाकर प्रकृति का धन्यवाद करने के बाद ही ग्रहण करते हैं. सरना मां से प्रार्थना की जाती है कि प्रकृति हम पर इसी तरह अपनी कृपा बनाए रखें. आगे भी पानी बरखा अन्न-धन से हमें परिपूर्ण रखें. इस मौके पर पहला दिन उपवास कर पाहन द्वारा सरना स्थल में घड़े में पानी रखा जाता है और दूसरे दिन सरना में पूजा के बाद घड़े के पानी को देख पाहन इस वर्ष बारिश की स्थिति का पूर्वानुमान करते हैं.
पूजा के पश्चात सरहुल शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें सभी गांव, टोलों से छोटे – बड़े, महिला – पुरुष – बच्चे, पारंपरिक वेशभूषा और ढोल, नगाड़ा, मांदर के साथ नाचते – गाते रीझ-रंग करते हैं. रांची महानगर में यह शोभायात्रा सभी गांव से निकलकर मुख्य मार्ग होते हुए केंद्रीय सरना स्थल सिरोमटोली में पूजा के पश्चात समाप्त होता है. झारखंड सभी जिलों सहित देश के अन्य आदिवासी बहुल राज्यों तथा नेपाल, बांग्लादेश जैसे देशों में भी सरहुल शोभायात्रा निकाली जाती है.
दूसरे दिन सुबह पाहन एवं सहयोगी गांव के एक – एक घर घूम कर पवित्र सारई फूल से फुलखोंसी करते हैं. सभी घरों में अच्छे-अच्छे पकवान बनाए जाते हैं और पूरे गांव के लोग मिल बांट कर खाते हैं और खुशियां मनाते हैं.
सरहुल महापर्व एक तरह से “सरना धर्म” का निचोड़ है. जो हमें प्रकृति का धन्यवाद करना और इसका संरक्षण करना सिखाता है. प्रकृति है तो दुनिया है. प्रकृति के सुरक्षा के लिए आदिवासियों के इन परंपराओं का संरक्षण आवश्यक है.