
आज मैं चूड़ियों की बात करती हूं,
तस्वीर कल की है जिसमें मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को महिलाएं और पुरुष चुड़ी दिखा कर कुछ बोल रही हैं. क्या बोल रही होंगी समझ ही रहे होंगे आप सब.
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि किसी को नाकारा या कमजोर साबित करने के लिए चूडियां ही क्यों फेंकी या दिखाई जाती हैं? आखिर चूडियों को किस बात का प्रतीक समझते हैं लोग? …कमजोरी का?
मर्द तो ताना स्वरुप चूडियां देते ही हैं, लेकिन महिलाएं भी पीछे नहीं होतीं. यानी कि महिलाओं को भी लगता है चूडियां निक्कमेपन या कमजोर होने की निशानी है.
बचपन से ये डायलॉग सुनते आते रहे हैं कि हमने क्या चूडियां पहन रखीं हैं या फिर औरतों की तरह चूडियाँ पहनकर घर में बैठो और मजे की बात ये है कि किसी को चूडियों के इस तरह के इस्तेमाल पे ऐतराज भी नहीं है. होगा भी क्यों? सोचेंगे तब तो होगा ना.
जरा सोचिए, चूड़ी देकर कोई भी सामने वाले का नहीं बल्कि महिला शक्ति का अपमान करता है. चूडियां तो मां काली और दुर्गा के हाथ में होती हैं. बाकायदा उन्हें श्रृंगार के तौर पर चूड़ियां भेंट की जाती हैं. नवरात्रि में उनसे बढ़कर है कोई शक्ति का रूप? चूडियां तो सीता मां के हाथ में होती हैं, है कोई उनसे बड़ा धैर्यवान? चूड़ियां तो रानी लक्ष्मीबाई भी पहनती थी. हाथ में तलवार भी होते थे. पीठ पर बच्चे को बांधकर युद्ध भी किया था तो क्या वह कमजोर थी?
चूडियां तो हर उस लडकी के हाथ में होती हैं जो नए सपने सजाती हैं और बड़ी ही मजबूती से अपने माता-पिता के घर को छोड़कर एक नए और अंजान घर को अपनाती है, चूडियां तो उन हाथों में भी होती हैं जो नौ महीने तक एक जीवन को अपने अंदर पालती हैं और दर्द की चरम सीमा को पार करके एक नए जीवन को दुनिया में लाती हैं, फिर रात रात भर जागकर उस जीवन को अपनी करुणा और ममता से संवारती है. चूडियां तो उन कई हाथों में भी देखी हैं जिन्होंने काव्य लिख डाले, कहानियां लिख डालीं, चूडियां तो उन हाथों में भी हैं जो शिक्षक के रूप में समाज को आगे ले जा रही हैं.
कौन-सा रूप है औरत का जिससे उसका श्रृंगार कमजोरी या नकारेपन का प्रतीक बना दिया गया. कई बार तो यह सोच ही मेरे पल्ले नहीं पड़ती कि अगर किसी का अपमान करना है, तो उसे बताओ कि वो औरत समान है, औरत मतलब कमजोर, औरत मतलब नाकारा. ये सोच हमारे समाज के अंदर तक धंसी हुई, एकदम घुली-मिली और वो भी ऐसे घुली-मिली हुई कि पता ही न चले. सदियों से बस चली आ रही है और हम आज भी यूं ही हांकते चले आ रहे हैं.
कहने को तो लोग जरूर कहेंगे कि ऐसा नहीं है ये औरतों का अपमान नहीं है, उनसे मैं जरूर जानना चाहूंगी कि कैसे नहीं है? चूडियाँ महिलाओं का श्रृंगार हैं, पौराणिक, धार्मिक या सांस्कारिक जो भी कारण हो सच यही है की औरतें अपने पति की मंगलकामना के लिए ही हर तीज त्यौहार में इन्हें पहनती हैं. हाथों में चुभें, कभी टूट भी जाए तो चोट भी लग जाए पर फिर भी पहनती हैं. कितना धीरज और कितनी समझदारी होती है कि हाथ में कांच भी है और कठोर से कठोर जीवन जीने ही क्षमता और साहस भी.
पुरुषों के लिए इतना ही कि…कभी कांच की चूड़ी की दुकान पे जरा चूड़ी पहनने की कोशिश करके देखिएगा. पता चलेगा की महिला का जीवन जीना तो छोडिए पुरुषों के बस का तो उनकी चूडियां पहनना भी नहीं है और वो महिलाएं जो खुद के हाथों में चूड़ियां डाले दूसरों को नकारा साबित करने के लिए चूडियां भेंट कर आती हैं उन्हें तो बस नमस्कार ही करुंगी उन्हें मालूम नहीं वो खुद को और पूरी महिला जाति को नकारा साबित करती हैं.