News Highlights
Arun Kumar
लोकतंत्र में दो बातें बहुत मायने रखती हैं, एक सरकारी नीतियां और दूसरी सरकार की नीयत. कहते हैं, नीतियां अक्सर गलत नहीं होती, खोट तो सरकार की नीयत में होती है. केंद्र सरकार के तीनों नए कृषि संशोधन बिल में ये साफ झलकता है.
कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020
इस कानून के अनुसार अब किसान सरकारी मंडियों के बाहर किसी भी निजी फर्म को अपनी फसल बेच सकते हैं. सरकार का दावा है कि इससे बाजार में प्रतियोगिता बढ़ेगी और किसानों को अपनी उपज का बेहतर दाम मिलेगा.
पर, सवाल ये है कि अभी सरकार फसलों की MSP तय करती है और बाजार भाव भी MSP के इर्द-गिर्द ही होता है. अगर किसान सीधे निजी बाजार में अपनी फसल बेचते हैं, तो इस स्थिति में बाजार भाव कौन और कैसे तय करेगा? अगर सरकार बाजार भाव तय भी कर देती है, किसान अपनी फसल निजी बाजार के बेचेंगे किसे? जैसे सरकारी मंडियों में बिचौलियों का कब्जा है, वैसे ही निजी कंपनियों में कॉर्पोरेट ठेकेदारों का कब्ज़ा है. 90% किसान जो सरकारी मंडियों तक पहुँच नहीं पाते. वे कॉर्पोरेट दलालों के चक्रव्यूह को तोड़ निजी कंपनियों को अपनी फसल कैसे बेच पाएंगे?
कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक 2020
इस कानून में सरकार ने खेती में निवेश को बढ़ावा देने की बात कही है यानि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग. बड़े-बड़े पूंजीपति किसानों के साथ कॉन्ट्रैक्ट करेंगे. उनकी जमीन पर पैसा लगायेंगे, उनसे काम कराएंगे, उन्हें मजदूरी देंगे और फिर सारी फसल काटकर ले जायेंगे. ये उन किसानों के लिए ठीक है जो खेती को घाटे का बिज़नेस मानते हैं. जो पैसा लगाना नहीं चाहते, सिर्फ पैसा कमाना चाहते हैं. लेकिन, वैसे किसान अपने ही जमीन पर मजदूर बन जायेंगे और धन्ना सेठ लोग मालिक.
लेकिन, ये धन्ना सेठ किसानों के प्रति कितने इमानदार होंगे, इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है. फैक्ट है कि ईमानदार इंसान कभी बड़ा बिजनेसमैन नहीं बन सकता. मतलब गड़बड़ी तो होगी ही. अगर कॉन्ट्रैक्ट में किसी तरह की गड़बड़ी हुए तो पहले कंपनी के दफ्तर के चक्कर काटो, उसके बाद अफसरों के औए फिर ट्रिब्यूनल के. जो किसान तहसील कचहरी जाने से घबराते हैं, क्या वे ट्रिब्यूनल से अपना हक़ ले पाएंगे?
आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक 2020
इस क़ानून के मुताबिक अब कृषि उपज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दिया गया है. मतलब, अब सरकार कृषि उपजों पर भी टैक्स वसूल करेगी. कोई भी किसान या व्यापारी टैक्स चुकाकर जितना चाहे उतना अनाज का भण्डारण कर सकता है. किसानों के पास तो भण्डारण की सुविधा है नहीं और न ही वे भण्डारण करेंगे. क्यूंकि, इसी से उनका रोजी–रोटी चलता है. मतलब, जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों को खुली छूट.
सरकार भले लाख दावा करे कि इन संशोधन से कृषि क्षेत्र में सुधार होगा, कृषि में पूँजी निवेश बढेगा, किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम मिलेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी. पर, इससे किसानों की जिंदगी में खुशहाली आएगी, इसकी संभावना कम है. हां, इतना तय है कि किसान पूँजीवाद के गुलाम बनने जा रहे हैं.
(लेखक पूर्व पत्रकार हैं और खेती-किसानी करते हैं, यह उनका निजीी विचार है )